यदि हाँ.. तो हमें अतिरिक्त जनसेवा कार्यक्रमों की क्या आवश्यकता है...?
और यदि नहीं... तो संगठन के स्वरुप पर पुनः विचार करना चाहिए। मैं यहाँ बिनोद रिंगानिया जी और रवि अजितसरिया जी की बातों से सर्वथा सहमत हूँ, हमारे समाज के द्वारा असंगठित रूप से जितना जनसेवा कार्य किया जाता है वो शायद विश्व में अनूठा हो. पुरे भारतवर्ष में आप कही भी चले जाएँ, यदि किसी धर्मशाला में ठहरे हों, किसी प्याऊ में पानी पीने को हाथ बढाया हो, किसी ट्रस्ट की अस्पताल अथवा किसी धर्म स्थल में चले जाएँ संभव है की किसी न किसी मारवाडी के द्वारा संचालित होगी, फिर यदि बिनोद रिंगानिया जी की बात मन जाये तो ७५% नेत्रदाता भी मारवाडी रहे है, इन स्थितियों में क्या और जनसेवा की आवश्यकता रह जाती है..., क्या इन कार्यक्रमों को एक संगठित रूप नहीं दिया जा सकता.. क्यों नहीं हम नेतृत्व विकास, व्यक्तित्व विकास अथवा तो समाज विकास की ओर ज्यादा ध्यान देवें. ये बात सच है की जनसेवा के कार्यक्रम हमें एक त्वरित पहचान देते हैं पर हमें कालांतर में मिलने वाले पहचान को भी ध्यान में रखना चाहिए, वो जनसेवा की पहचान तो हमें पिछली पीढियों ने ही काफी दे दी है अब हम कुछ व्यक्तित्व विकास की राह पर चलें... रवि जी के ही अनुसार हम कोई सिर्फ पानी पिलाने वाले संगठन का हिस्सा नहीं हैं, और फिर यदि लाखों करोर बजट वाली सरकार सबको पानी नहीं पिला सकती तो क्या हम...?हमें जनसेवा को साध्य नहीं साधन बनाना चाहिए. लक्ष्य अभी और ऊँचा है....
जारी....
सुमित चमडिया
मुजफ्फरपुर
बिहार
मोबाइल - 9431238161
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